Tuesday, May 13, 2014

कौन था जो मार दिया गया


किस चीज़ से आएगी याद उन सबकी जो मारे गये ! ज़ख्म जो भरे नहीं हैं अभी वे दिलायंगे उनकी याद।  

बर्तोल्त ब्रेख्त 




वह भी मार दिया गया, दिन के उजाले में कत्ल कर दिया गया और जो उसकी कला के उपासक थे उनको एक ऐसा ज़ख्म दे दिया गया जो कभी न भरने वाला है।  हम बात कर रहे हैं क्रांतिकारी लेखक, कम्युनिस्ट नाटककार, कलाकार, निर्देशक, गीतकार और नुक्कड़ नाटक के पिता कहे जाने वाले  सफ़दर हाश्मी की जिसने सादा मिज़ाज़ जिंदगी गुज़ारते हुए लोगो के लिये अपनी ज़िन्दगी को कुर्बान कर दिया। सफदर जन नाट्य मंच और दिल्ली में स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया(एसएफआई ) के स्थापक-सदस्य थे। जन नाट्य मंच की नींव १९७३ में रखी गई थी, जनम ने इप्टा से अलग हटकर आकार लिया था। 

सफ़दर में वे सभी गुण थे, जो किसी संभ्रांत परिवार में, अच्छी  देखबाल में पले-बड़े लड़के के होते हैं।  वह प्रतिभाशाली था।  बहुत अच्छी शिक्षा उसे  मिली थी और वह साहसी भी था।  दिल्ली के बावजूद आश्चर्यजनक ढ़ंग से सफ़दर तमाम दुसरे ऐसे लोगों तरह 'बुर्जुआ  एजेंट ' के रूप में नहीं बदला।  पश्चिम बंगाल सरकार में विषेश अधिकारी  के रूप में उसकी तीन साल  नौकरी भी उसे वयवस्था का पुरज़ा नहीँ बना सकीं। एक दिन उसने अचानक ही ऐलान कर दिया : "मैंने वह नौकरी छोड़ दी, क्योंकि जन नाट्य मँच का काम देखने वाला कोइ और नहीं था। "  

भारत के प्रतिनिधि पठकथा लेखक और प्रिसिद्ध नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर ने अपने एक  लेख , 'कौन था जो मार दिया गया ' में सदर हाशमी  की सबक आमेज़ जिंदगी को बहुत आकर्षक ढंग से  बेनक़ाब किया हैं। वह लिखते हैं -

एक आर्टिस्ट,  क्रांतिकारी सफ़दर हाशमी को आप क्या कहेंगे ? थियेटर और क्रान्ति सफ़दर के लिये दो अलग-अलग चीज़ें नहीं थीं, बल्कि ये दोनों उसकी शख्सियत में कुछ  ऐसी घुल-मिल गयी थीं कि इन्हें अलग -अलग नहीं देखा जा सकता था।  सफ़दर ने थियेटर और क्रान्ति का सपना एक साथ देखा था।  इनके पिता हनीफ हाशमी मेरे दोस्त थे।  हम दोनों ही सोवियत इंफोर्मेशन डिपार्टमेंट में एक अरसे से नौकरी करते रहे। सफ़दर की उम्र कोई आठ -नौ वर्ष कि होगी, जबकि एक दिन मुलाक़ात कराते हुए उनके पिता ने मुझ से कहा -"इनसे मिलिये,  नक़्श-ए-क़दम पर चले हैं , एक्टिंग भी करने  लगे हैं और बहुत इन्कलाबी भी हो रहे हैं।  आपके सारे ड्रामें देख  हैँ। " मैं खुद ये सब सुन  कर झेंपा ही था, सफ़दर भी एक तरफ़ खड़े कुछ शर्माते, मुस्कुराते रह गये थे।  ज़माने  व्यंग्य देखिये कि ठीक उस समय जबकि वे एक मंझे हुए क्रांतिकारी आर्टिस्ट कि हैसियत से हमारे सामने आने लगे थे,उन्हें मंज़र-ए-आम से ज़ुल्म के  हाथों ने हटा दिया।  

क्रान्ति और आर्ट दोनों  सफ़दर कि फितरत में एक साथ नक़्श हो गये थे। उनकी सारी मेहनत इन दोनो चीज़ों को समझने में लगी ; अध्यन के ज़रिये भी और अनुभव के द्वारा भी। एक तरफ राजनीति , सामाजिक समस्याओं और दूसरी तरफ़ रंगकर्म की बारीकियों को समझने में उन्होने समय लगाया , और ये काम बडी मेंहनत , हौसलामंदी और द्रढ़ता से करते रहे। 

उनकी जानकारी का दायरा बहुत व्यापक था।  उर्दू, हिंदी, अंग्रेज़ी तीनोँ भाषाओं पर अच्छा खासा अधिकार था।  हिंदी की क़स्बाती बोलियाँ समझते भी थे और लेखन में इनका प्रयोग भी करते थे।  बातचीत का विषय कोई भी हो, सफ़दर के साथ बातचीत करने में मज़ा आता था , साहित्य,राजनिती , चकित्सा ,विज्ञान -हर विषय में सफ़दर जानकारी से बहस करने की  योग्यता रखते थे। 

पिछले अक्टूबर में मैने अपना नाटक ' मंगलो दीदी ' लिखने के बाद सफ़दर के ड्रामा ग्रुप 'जन नाट्य मंच ' के कुछ सदस्यों को एक विषेश गोष्ठी में सुनाया।  नाटक सुनकर सफ़दर खूब हँसे और कहने लगे ,"ये नाटक कुछ हद तक लिसिस्ट्राटा (Lysistrata) की याद दिलाता है। इसी दिशा में इसे  आप कुछ और क्यों नहीं उभारते ?" यहाँ सफ़दर के ज़हन के दो पहलू उजागर होते हैं।  

एक तो सफ़दर जो अरिस्टोफनीस (Aristopanes) की ये महान शास्त्रीय कॉमिडी मालूम थी जिस पर मुझे ज़्यादा आश्चर्य इसलिये नहीँ हुआ कि मैं सफ़दर को इस हद तक तो जानता था कि जिसके आधार पर ये कह सकूँ कि शैक्सपीयर के सारे नाट्क और युनान के तमाम नाटक उनकी नज़रों से ज़रूर गुज़रे होंगे।  दूसरा पहलू जिसे जानकार मुझे ज़्यादा हैरत हुई, वह था  सफ़दर का सहित्य में श्रृंगार की तरफ़ रवैया।  और वह भी देखते हुए मेहनतकश तबको के एक समाजिक और राजनितिक नेता भी थे। इस बात को मैं और ज़्यादा साफ़ करने के लिये एक और मिसाल पेश करूँ। 

पिछले जून के के महीने में जब हम दोनों प्रेमचँद की कहानी पर आधारित  नाटक 'मोटाराम का सत्याग्रह' पर  काम  रहे थे, इसमें  नये दृश्य की रचना की गयी।  ये दृश्य था एक तवायफ़ का कोठा। ज़ाहिर है इसका कोई सम्बन्ध प्रेमचंद की  कहानी से न था। मैंने इस दृश्य पर जो दोबारा काम किया तो इसमें बेडरुम कॉमेडी के जितनें पहलू सम्भव हो सकते थे , वह सब सामने आ गये।  सफ़दर की पत्नी मलयश्री तवायफ़ का पार्ट कर रही थीं, और सफ़दर खुद उस मजिस्ट्रेट  का जो कोठे पर जाता है।  सभी लोगों को इस दृश्य में बहुत आनन्द आ रहा था , न सिर्फ़ इस लिये कि दृश्य बहुत हसाने वाला था, बल्कि इस लिये भी  कि नाटकीयता कि दृष्टिकोंण से ये दृश्य नाटक का सबसे प्रभावशाली दृश्य था।  हालांकि सफ़दर खुद रिहर्सलों के दौरान  इस दृश्य मे बहुत आनन्द लेते हुए और बहुत खुल कर पार्ट कर रहे थे , पर एक दिन यकाकक उन्हें एक वसवसे ने  आ घेरा।  उन्होंने कहा हालाँकि दृश्य बहुत मज़ेदार है और शायद राजनितिक ऐतबार से अर्थपूर्ण भी है , फिर भी उन्हे  इस बात  शक है कि जब प्यारे लाल भवन और अन्य थेयटरों के प्रारम्भिक चन्द शो के बाद  वह सड़कों  पर इस नाट्क  को लेकर जायंगे तो वहाँ जनता पर इस  दृश्या क क्य प्रभाव होगा।  बात उनके दिल में कुछ इस तरह की थी।  दिल्ली के थेयटरों में जानेवाले, जो आमतौर पर मध्यम वर्ग के पढे-लिखे नागरिक होते हैं , उन्हेँ तो शायद इस् तरह के दृष्य से लुत्फ़अन्दाज़ होने की आदत है, लेकिन शहर की जनता जिसमें अधिकतर ग़रीब तबक़े के लोग शामिल हैं , कहीं उन पर ऐसे हास्य का उल्टा  प्रभाव ना पढ़े, और कहीं ऐसा ना हो कि नाटक के वास्तविक उद्देश्य से उन्का ध्यान हट जाए।  मुझे बात कुछ गंभीर लगी, क्यूँकि हमार उद्देश्य तो प्रेमचँद कि कही हुई बात को आगे बढ़ाना था।  उनकी कहानी 'सत्याग्रह' दरसअल एक व्यंग्य है जिसमें राजनीति को धर्म के साथ मिलाकर खिचड़ी पकाने वालों की खिल्ली उड़ाई है।  इस विषय पर प्रेमचंद की कुछ कहानियां , जो हमारे सामने थीं , उनमें से इस कहांनी का चयन हमने इसे आधार पर किया था कि विषय का ये पहलू हमारे वर्त्तमान राजनीतिक हालात से  समानता रखता है।  मैंने फ़ौरन  कलाकारों की एक मीटिंग बुलाने का फ़ैसला कर लिया। 

कोई तीस से ज़्यादा कलाकार होंगे। सब इस बात पर विचार करने के लिय बैठ गये।  लगभग फैसला यही निकला  जहॉं तक नुक्कड़ नाटकों के दर्शकों का सम्बन्ध है,  इस दृश्य को उनके सामने प्रस्तुत करने में सरासर ख़तरा है।  मैंने प्रस्ताव रखा कि फिल्हाल इस दृष्य को काट लिया जाए।  इस दृश्य को हटा देने से नाटक में कुछ उलटफेर करना लाज़मी था , जो मैने फ़ौरन कर लिया।  नए संवाद की जहाँ  ज़रुरत थी , लिख दिये गए , कुछ महत्वपूर्ण बातें जो अब  छूट गईं थीं , उन्हें नए रूप में उजागर किया गया। कलाकारों ने आवश्यकतानुसार तैयारी मुकम्मल की , और एक बार फिर सारे नाटक का रिहर्सल लोगों को दिखाया।  परिवर्तन से मूल कहानी में कोइ खास फर्क़ नही आया था। जिन्होंने  रिहर्सल नहीं  देखा , उन्हें किसी तरह की कमी का एहसास भी नहीं हुआ , लेकिन  जो पहले रिहर्सल देख चुके थे , उनकी दो राय बनीं।  एक पुराने दृश्य के पक्ष में और दूसरी उनकी खिलाफ़।  कलाकारों की राय शामिल करने के बाद बहुमत पुराने दृश्य के खिलाफ़ बरकरार रहा।   

यहाँ ये बता देना शायद ज़रुरी है सफ़दर के आपने ख़यालात इस मामले में  वही थे जो एक रोशन ख्याल साहित्यकार और कलाकार के हो  सकते हैं।  इस समस्या पर सफ़दर ने मुझ से बातें की थीं उन्में साफ़ जाहिर हो गया था वह साहित्य और नैतिकता के सिलसिले में कट्टर हर्गिज़ नहीं थे।  हम दोनों इस बात पर सहमत थे कि इन मामलों में मुल्लापन साहित्यकारों और  कलाकरों को शोभा नहीं देता , चाहे आम आदमी का इस सिलसिले में कुछ  रवैया हो।  हम इस बात पर  भी सहमत  थे कि श्रंगारिक  नैतिक मामलों में कट्टरपन की खिल्ली उड़ाना जनता के राजनीतिक प्रशिक्षण का एक ज़रुरी अंग होना चाहिए।  जहां हमारी राय अलग अलग थी वह राजनीतिक मसलेहत का मामला था , यानि किन बातों को प्राथमिकता दी जाना चाहिये , वर्तमान राजनितिक समाजिक पृष्टभूमि में कौन सी बातों को सबसे ज़्यादा महत्व देना चाहिए , वास्तविक राजनितिक उद्देश्य पार्प्त करने के लिये किन बातों को एक हद तक नज़रअंदाज़ करना ज़रूरी है , मौक़ा-महल के राजनितिक तक़ाज़े क्या हैं , आदि आदि।  वैसे जहाँ तक इन समस्याओं का सम्बन्ध है मेरी नज़र में ये महत्वपूर्ण है और इनका हल तलाश कर लेना आसान हर्गिज़ नहीं है। 

बरहाल इस मंज़िल पर सफ़दर ने यकायक कहा कि इस द्रश्य के सिलसिले में आख़िरी फैसला आप खुद करेंगे - और सब कलाकारों ने इस राय  पर सहमति प्रकट की।  अब ज़िम्मेदारी का सारा भार मुझ पर आ गया. मैंने फिर एक रिहर्सल का प्रस्ताव रखा , जिसमें इस बार कोठे का द्रश्य ज्यों -का-त्यों वापस लाया गया।  मैंने चाहा की मुझे द्रश्य पर गहराई से विचार करने का मौक़ा हाथ आए ।  मैंने फैसला सही किया हो या ग़लत , बरहाल रिहर्सल देखने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि इस द्रष्य को बरकरार रखना चाहिये।  बस फिर उस दिन के बाद इस मसले पर दूसरी कोइ बहस नहीं हुई।  न कभी किसी को कोई शिकायत पैदा हुई।  न माहौल में कभी कोई तनाव पैदा हुआ , हँसी-ख़ुशी रिहर्सल होते रहे , इसी तरह सारे शो।  सफ़दर  ज़हन में  लचक थी , उसकी उससे बेहतर मिसाल और कौन सकती है ?

मुझे सफ़दर के साथ जो  काम करने में आनन्द आया है , शायद ही किसी और कलकार के साथ काम करने में आया होगा। नेताओं में वह इन्सानियत कम देखी होगी जो सफ़दर में थी, वह इन्सानियत जो उसकी लीडरशिप की बुन्याद थी।  जिसके आधार पर 'जन नाट्य मंच' के  सारे कलाकार आजतक एक जगह मज़बूती से जुटे हुए हैं।  ये वह कलाकार हैं , जो समाज के विभिन्न वर्गों से सम्बन्ध रखते हैं और विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के समर्थक हैं।  राजनितिक गतिविधिओं का प्रभावषाली शिक्षक सफ़दर से बेह्तर मेरी नज़र दूसरा न्हीं आता। 

एक ग़लत दृष्टिकोण एक क्रांतिकारी के सम्बन्ध में ये भी है कि जैसे वह सर से पाँव तक  बहता हुआ अँगारा हो , बस और कुछ न हो।  भाईचारा , सेवाभाव , इंसानी फितरत से वाक़फ़ियत , जनता से सच्ची हमदर्दी, महज़ तबीयत की सादगी , खुशतबइ वह विशेषताऐं हैं , जो एक व्यक्ति को सच्चा क्रांतिकारी बना देती हैं : इन्हें प्राया नजरअंदाज़ कर दिया जाता है। सफ़दर की ज़िन्दगी और उसका आचरण एक क्रांतिकारी से सम्बन्धित ग़लत विचारों से छुटकारा दिलाता  है।         

मुझे पिछले वर्ष जुलाई की वह घट्ना याद आती है  जबकि मुझे अपने एक आर्टिस्ट को इलाज के सिलसिले में सफदरजंग अस्पताल ले  जान था।  जब मैंने सफ़दर से इस बात का ज़िक्र किया  उसनें अस्पताल के नौजवान मेडिकल-छत्रों को मरीज़ के मुआयने के लिये भिजवाया, अस्पताल के डॉक्टरों से कहकर जांच का इंतेज़ाम किया, और इस सिलसिले में मेरे और मरीज के साथ अस्पताल के नाख़ुशग़वार कमरों तथा बरामदों में कई-कई घंटे गुज़ार दिये।  ये वह ज़माना था जब वह नाट्क लिखने और इसके अलावा और बहुत से कामों में उलझा हुआ था।  मैं सफ़दर की जान-पहचान  के लोगों का व्यापक दायरा देखकर हैरान रह गया।  दिल्ली का शायद ही कोइ बडा अस्पताल होगा , जहाँ से किसी न किसी डॉक्टर या मेडिकल स्टूडेंट को सफ़दर ना जानता हो।  कौन नहीं जानता कि ऐसी लोकप्रियता वक़्त-ज़रुरत एक दूसरे के काम आने और सेवा के एक निस्वार्थ जज़्बे से हासिल होती है। मेरी राय में ये पहलू सफ़दर के क्रांतिकारी मिज़ाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया था।  

मुझे अपने नाटक 'हिरमा की अमर कहानी' के वो शो याद आ रहे हैं , जो हमने 1986 में श्री राम सेंटर में प्रस्तुत किये थे।   नाटक बस्तर की आदिवासी जिंदगी और इतिहास से सम्बन्धित है।  सफ़दर इसके बारे में कुछ लिखना  चाहते थे।  हमने इस नाटक के लगातार सात शो किये।  किसी भी शो में दर्शकों कि सँख्या ज़्यादा नहीं थी , मगर सफ़दर बराबर शो देखने कई दिन तक आते रहे और मुझ से मिलकर नाटक के बारे में बातें करते रहे। आखिरकार उन्होंने 'फाइनेंशियल टाइम्स ' में एक लम्बा और ठोस लेख छपवाया।  इस नाटक की इससे बेहतर समीक्षा मेरी नज़र से नहीं गुज़री।  प्रशंसा का पहलू अगर छोड़ दीजिए , तो इसका आलोचनात्मक पहलू भी बहुत तीखा और गहरा था।  सफ़दर ने जो बुन्यादी  सवाल अपनें लेख में उठाया था , वह राजनितिक था। दरअसल नाटक या तो इस सवाल से हटकर गुज़र जाता है , या इसका जवाब प्रस्तुत करने में असमर्थ है।  

नाटक बस्तर की कुछ ऐतिहासिक घटनाओं की एक झलक इशारतन पेश करता है।  जिस ज़माने में ये घटनाएं हुई थीं , सफ़दर उस समय स्कूल में रहे होंगे।  या तो सफ़दर लड़कपन ही में इन घटनाओँ से प्रभावित हुए होंगे , या उन्होने आगे चलकर पुराने अखबारों के अध्य्यन से इनकी जानकारी प्राप्त की होगी।  मैं नहीं समझता की सफ़दर की नस्ल के लोगों पर इन घटनाओं का इतना गहरा असर  होगा , जितना कि  के लोगों पर पङा था। मेरी मुराद प्रबीरचन्द भंजदेव  ज़माने से है।  मैं ये कहना चाहता  हूँ कि सफ़दर के क्राँतिकारी मिज़ाज की तरकीब में कबीलाई समस्याओं से एक गहरी दिलचस्पी भी शामिल थी. 

जिन कठिन परिस्थितियों में सफ़दर एक मुद्दत तक निहायत मुंतक़िल मिज़ाजी से सरगर्म रहे , वह अपनी जगह एक हैरतंगेज़।  असहनीय गर्मी के ज़माने मे, कीचड पानी से भरी हुई बस्तियों के  इलाकों में मुझे सफ़दर के कुछ नुक्कङ नाटकों को देखने का अवसर  मिला है। गर्मियों के मौसम में चढ़ते सूरज के समय दूर -दराज़ सफ़र पर निकल जाना , बस्तियों में जगह जगह अपने अपने नुक्कङ नाटकों को  दिन  में दो-तीन बार प्रस्तुत करना, और देर रात घर वापस जाना , जफ़ाकशी का एक ये पहलू भी क़ाबिल -ए -ग़ौर है।  इसके लिए अच्छी -खासी नौकरी को छोड़ देना , हर रोज़ यही दस्तूर बना लेना , इस ज़िंदगी के लिये कैसा समर्पण , जनता के  क़ैसी बेपनाह मोहब्बत शामिल रही होगी। 

ये नाटक सफ़दर खुद लिखा  करते थे जिनका सम्बन्ध मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी और उसकी समस्याओं से था। उनके लिए  वे गाने लिखते थे , अक्सर उनकी धुनें  खुद बनाते थे , उन नाटकों में अभिनेता की हैसियत से भाग लेते थे, गाते भी थे  और प्राय: निर्देशन भी करते थे । इतना सारा काम एक आदमी के लिये कुछ कम ना था , और यह काम लागातार दस साल तक बराबर जारी रहा। 

सफ़दर बहुत खूबसूरत गाने लिखते थे , मगर अपने आपको गीतकार या शायर की हैसियत से कभी महत्व न दिया।  नाटकों का निर्देशन भी करते थे मगर हमेशा माज़रत ख्वाह रह्ते कि उन्हें निर्देशन नहीं आता। एक्टिंग बहुत अच्छी करते थे मगर खुद को कभी ऐक्टर न समझा। वह एक लीडर थे , जिसने अपने को कभी लीडर ना माना।  सफ़दर एक सादा तबीयत  हँसमुख व्यक्ति थे , जिन्हें बात-बात पर खिलखिलाकर हँस देना आता था। जिस घर में भी क़दम रख देते , महौल में ज़िन्दगी की लहर दौड़ जाति ,एक रौनक फैल जाती। उनकी विशेषताओं में ये कुछ विशेषतायें ऐसी हैं , उन्होने  जिन्हें एक लोकप्रिय नेता बना दिया।  ऐसी विशेषताएं जो दुसरे तथाकथित नेताओं में कम नज़र आती हैं। 

दस वर्ष कि नुक्कड़ नाटक की अथनक सरगर्मियों के बाद सफ़दर ने मुडकर उस थेयटर की तरफ़ नजर की , जिसे वह थेयटर की मुख्य  धारा  कहा करते थे , कभी वह उसे नुक्कड़ नाटक की  तुलना में प्रोसीनियम थेयटर (Proscenium Theatre) भी कहते थे। यानि वह थेयटर जिसे वह मुद्दतो पहले पीछे छोड़ आए थे।  कहते थे की वह इस थेयटर से इतना दूर हट गए हैं कि जो कुछ उस ज़माने में तजुर्बे से सीखा था , वह भी भूल बैठे थे , अब वह इस थेयटर की तरफ़ फिर से वापस आना चाहते थे , चाहे वह अपने नुक्कङ नाटक काम से ज़्यादा ताकबीयत देने के लिये ही क्यों न हो।  उन्होंने अपने लिए एक कार्यक्रम बनाया।  उसकी पहली कड़ी ये थी मुझे अपने ग्रुप के लिये एक नाटक निर्देशन के लिये कहा। जिसका नतीजा था पिछले जुलाई की प्रस्तुति 'मोटेराम का सत्यग्रह' . इस सिलसिले की दूसरी कड़ियों में कुछ ऐसे नाट्य शिविर शामिल थे , जो एम के रैना , बंसी कौल और इस तरह के अन्य निर्देशक जन नाट्य मंच के कलाकरों के लिये चलाने वाले थे। साथ-साथ वह खुद जे.एन. यू और दुसरे युवक केन्द्रो के लिये नाट्य शिविर कर रहे थे, जिस में मुझ जैसे निर्देशकों को भी बुलाते थे। इसी ज़माने में पहली बार वह उस जन उत्सव की बात करने लगे थे , जिसमें रंगकर्मी ,कवि ,लेखक चित्रकार और तरह -तरह के दस्तकार ,फनकार और कारीगर जनता के बीच एक खुले माहौल मे आपने काम पेश करें और एक दूसरे का असर क़बूल करने का खुद को मौक़ा दें।  अभी ये ख्याल सपने की ही शक्ल में था कि ज़ुल्म के बेअक़्ल हाथों ने उन्हें मौत के घात उतार दिया। 

सफ़दर ने ऐसे थेयटर की  तरफ़ वापस आने की ज़रुरत क्यों महसूस की होगी, कि जिसमें उनका ग्रुप दो-ढाई घंटे की मुद्दत  की  नाटक प्रस्तुत कर सकें और जिसे देखने के लिये लोग टिकट खरीद कर दाखिला प्राप्त करें।  एक कारण तो साफ़ वही है जो वह खुद बताया करते थे , यानि खुद अपने लिये और अपने ग्रुप के कलाकारों के लिए थेयटर की तकनीकी समस्याओं पर बेहतर नियत्रण प्राप्त करना। 

वह खुद कहा करते थे कि बरसों नुक्कड़ नाटकों में , खुले माहौल में काम करने से एक्टर चीख़कर बोलने का आदि हो जाता है , और जहाँ तक मूवमेंट का सम्बन्ध है , एक्टर मजबूर है कि चारों तरफ़ जहाँ -जहाँ  दर्शक खड़े हों , वहाँ जाकर एक्टिंग करे और इस तरह एक गोले मे घूमता रहे।  वह रंगकर्मी की इस ज़रुरत के बारे में बातें करते कि वह अवाज के उतार-चढ़ाव , संवाद बोलने के विभिन्न अँदाज, मँच पर उद्देश्य के अनुसार चलने के तरीके , और प्रोडक्शन की भिन्न शैलियों में ट्रेंनिंग प्राप्त करे। 

एक लेखक की हैसियत से भी सफ़दर ने यह मह्सूस किया होगा कि उन्हें एक भिन्न प्रकार  के तजुर्बे की ज़रुरत है।  इससे उन्हें नुक्कड़ नाटक लिखने मे  भी मदद मिलेगी। पिछले जून के महीने में जब सफ़दर मुझ से एक नाटक के निर्देशन के सिलसिले  में बात करने के लिये आए , जिसका आधार प्रेमचंद की किसी कहानी का होना था और जो प्रेमचँद दिवस पर प्रस्तुत किया जाने वाला था, तो उन्होने मुझे  कुछ कहानियॉं दीं और अपनी पसन्द की दो कहानियों की तरफ़ इशारा किया।  उन्हें एक कहानी खास तौर पर पसन्द थी, जिसका एक पात्र जामिद नाम का था।  वे इस कहानी को दूसरी एक कहानी के साथ मिलाकर नाटक लिखने की सोच रहें थे।  मैंने उनसे कहा कि नाट्क लिख लाओ तो ख्याल को समझने में आसानी होगी।  उन्होंने एक छोटा सा नाटक फोरन लिख लिया।  दृश्य और संवाद अछ्छे थे लेकिन सफ़दर खुद महसूस कर रहे थे कि अन्त कमज़ोर है।  मैंने देखा की अंत को मज़बूत बनाने के लिये दूसरी कहानी से काम नहीं चलेगा।  मैंने कहा कि 'सत्यागृह' को उठाओ और किसी और कहानी को मिलाए बग़ैर इस पर नाट्क लिखो, शायद इस तरह हमारा मकसद पूरा हो जाए।  इसी तेज़ी से सफ़दर 'मोट क सत्यागृह' लिख लाए।  इस पर हम दोनों संतुष्ट हुए , और नाटक अब आपके सामने है , आप खुद देखेँ कि दृश्य कितनी उम्दगी से निकाले गये हैं और गाने और संवाद किस पुख्ता मश्क़ी से लिखे गये हैं।  


इस नाटक कि प्रस्तुति के बाद दिल्ली के मिल मज़दूरों के वेतन का मासला सफ़दर के सामने आया और उन्होने एक नया नाटक 'चक्का जाम' लिखा , जो बाद में बदलती हुई परिस्थितयों के अनुसार उल्टे फेर लेने के बाद 'हल्ला बोल' कहलाया।  मैंने इसका शो जे. एन. यू. के मैदान में देखा। मैं जब इस नाटक और  मोटे 'राम का सत्याग्रह' का इनके पिछले नाटकों से मुक़ाबला करता हूँ तो मुझे महसूस होता है कि सफ़दर एक ऐसे मोढ़ पर आ गये थे, जहाँ से पुख्ताकार लेखक की शरुआत होती है।  इनके नए नुक्कड़ नाटक में ज़्यादा सस्पेंस , ज़्यादा गहराइ थी, व्यंग्य क पहलू ज़्यादा तीखा,हस्य क अँदाज ज़्यादा दिल्चस्प था।  प्लाट में ज़्यादा पेचीदगी थी, और नाटक की राजनितिक चोंट ज़्यादा भरपूर थी।  

मेरी राय में एक और भी करण, शायद इससे भी बड़ा कारण था जिसके लिये सफ़दर दुसरे रंगकर्मियों की सहायता  की तलाश में थे। इनमें कुछ ऐसे रंगकर्मी थे, जिनसे वह मुद्दतो पहले बिछड़ गये थे।  मेरे ख्याल से उनकी राजनीतिक सूझबूझ ने उन्हेँ इस नतीजे पर पहुंचा दिया था कि थेयटर के माध्यम में काम करने वाले रंगकर्मी को आन्दोलन से जुड़ें हुए भी ज़रूर रह्ना चाहिये। मेरे ख्याल में उन्हें थेयटर के अन्दर एक बहुत बड़ा ऐसा दायरा नज़र आ रहा था, जो लगभग सारे रंगकर्मियों के लिये समान था, चाहे अलग राजनितिक ख्यालात एक दुसरे से कितने ही अलग हों। इस दायरे का सम्बन्ध उन विषयों से भी है जो नाट्क के लिये उपयुक्त समझे जाते हैं, और इन समस्याओँ से भी है, जिनका रंगकर्मियों को आए दिन सामना करना पड़ता है।  इस लाइन पर एक बहुत व्यापक थेयटर फ्रण्ट की झलक उनके सामने थी, जो मिल जुलकर अपना उद्देश्य प्राप्त करने के संघर्ष में लगा रहे।  मेरी नज़र  में सफ़दर कि राजनीतिक और कलात्मक परिपक्वता का ये एक और  प्रतीक है। 

इससे  बड़ा व्यंग्य और क्या  हो सकता है कि ठीक इसी अवसर पर सफ़दर का खून बहा दिया गया। एक नौजवान और गहरी नज़र रखने वाला कलाकार , थेयटर-आन्दोलन का एक सच्चा और असाधारण लीडर हमारे बीच से चला गया। ये कमी, कुछ ऐसा महसूस होता है कि ला इलाज है। अगर वह जीवित होता तो यकीन है कि वह सारे काम पूरे कर गुज़रता जो उसने अपने लिये मुकरर्र कर रखे थे।  लेकिन हक़ीक़त ये है कि वह गुज़र गया और उसकी उम्र ३४ से आगे नहीं पहुँच पाई।  

उसकी मौत ने हम पर  ज़ाहिर किया कि उसकी प्रिसिद्धि का दायरा कितना फैला  हुआ था।  सिर्फ यही नहीं , बल्कि उसकी मौत ही है जो उन मोर्चों पर विजय पाती नज़र आ रही है, जिसका उसने अपनी  ज़िन्दगी मे सपना देखा था।  वह आदर्श जिसे प्राप्त करने के लिए वह ज़िन्दग़ी  भर सक्रिय रहा और  जिसके ऊपर उसने अपनी जान निछावर कर दी, वह एक बेह्तर समाज था , बेहतरी कि लिये समाजिक परिवर्तन था, उस्तवारी, उद्देश्य का सामंजस्य, ज़िन्दगी और मौत के दरमियान मुताबिक़त, ईससे ज़्यादा भला और क्या हो सकती है।  अगर वह अपनी मौत के द्धारा अपना ख्वाब हासिल कर लेता है , तो फिर उसकी मौत शायद बेकार ना हुई हो। 



सफ़दर का  क़त्ल दिन दहाड़े और जान बूझकर किया गया। वह अपना नुक्कड़ नाटक 'हल्ला बोल' जिला ग़ाज़ियाबाद के साहिबाबाद में नए साल के पहले दिन दोपहर के समय प्रस्तुत कर रहा था, जबकि उस पर हमला किया गया। दुसरे दिन दस बजे तक उसने आखरी साँस ली। दरअसल वह पहली जनवरी को ही शहीद हो चुका था, जबकि उसकी फालिजशुदा बेहोश लाश खून मेँ नहाई हुए सड़क पर पाइ गयी थी। इसके बाद सफ़दर होश में न आया। असंख्य चोटें उसने सही थीं, वह सारी की सारी सिर और गर्दन पर थीं , जो लाठियो और शायद लोहे कि छड़ो से लगायी गई थीं। हमलावर गिरोह ने क़त्ल की नियत से उस पर हमला किया और बज़ाहिर उन्होने अपना काम बड़े इत्मीनान और कामबयाबी से अंजमाम दिया, और पुलिस ने या तो वहाँ से मुहँ मोड़ लिया या जानबूझकर अपने अपको वारदात के मौके से दूर रखा।                        
     
      एक नहीं, दो खून हुए। एक मासूम दर्शक , एक मज़दूर, राम बहादुर राम का।  वह भी इस झमेले में जान से मारा गया।  ये क़त्ल पिस्तौल से किया गया। वह व्यक्ति उसी समय वहीँ ढेर हो गया।  ये आदमी क्यों मारा गया ? क्या लोगों में आतंक फ़ैलाने के उद्देश्य से चलायी गयी गोली छिटककर उसे लग गयी ? या फिर उस क़त्ल का कारण भी कुछ और था ? 

और वैसे सफ़दर भी आखिर क्यों मारा गया ? क्या इसलिए कि उसने मज़दूरो को उचित वेतन दिलवानी के सिलसिले में अपनी आवाज़ बुलंद की ? या शायद इसलिए अवाम के ग़रीब और मेह्नतकश तब्को का हर मौके पर साथ दिया, हर जुल्म के खिलाफ़ उनके पक्ष मे खड़ा हो गया ? फिर क़ातिल आखिर कौन थे ? सूना है चश्मदीद गवाह मौजूद हैं।  आतंक का माहोल अगर साफ़ हो जाए तो वह सामने आ सकते हैं।  यह ज़रूरी है मामला जल्द से जल्द इन्साफ की मन्ज़िल तक पहुंचे।  

ज़रूरी है की इस तरह के क़त्ल और ग़ारतगरी का सिलसिला खत्म हो। देश में निर्दोष लोगों का क़त्ल कर दिया जाना अब हद से आगे बढ़ चुका है।  अखबार हर रोज़ ऐसी ख़बरों से भरे होते हैं।  यहाँ तक कि लोगों का एहसास मिटता जा रहा है।  हम अखबार के हर पृश्ठ पर मरने वालों की  संख्या पर एक उछलती हुई नज़र डालते हुए आगे बढ़ जाने के आदि हो गये हैँ।   और अब ये नौबत आ गयी है समाज के बेहतरीन दिल व दिमाग़ ऱखने वाले व्यक्तियों को घांस फूस की तरह काटकर फेका जाने लगा है।  समय आ गया है कि हम इस सारे सिलसिल को खत्म करने के लिये आवाज़ उठाएं। अगर सफ़दर की मौत का ये परिणाम निकलता है कि सब कलाकार और बुद्धिजीवी संगठित होकर समाज के कुचले हुए वर्गों के साथ जुड़ जाते हैं और एक ऐसा मज़बूत और एक सयुंक्त मोर्चा क़ायम कर लेते हैं , जो क़त्ल व ग़ारतगरी की राजनीति  को हमेशा  के लिए ख़त्म कर  दे तो भी सफ़दर का मरना बेकार साबित ना होगा